जानिए कैसे जुड़ते हैं इरफान खान और लंच बॉक्स से कोरिया और सैमसंग
इसी नाम की एक फिल्म में इरफान खान ने मुख्य किरदार निभाया था. इस फिल्म में, मुंबई (Mumbai) के कई अन्य ऑफिस जाने वालों की तरह उनके लिए भी खाना किसी डब्बेवाले द्वारा उन तक पहुंचाया जाता था. उन्हें एक स्थानीय रसोइये द्वारा तैयार अपना खाना कभी पसंद नहीं आता था. लेकिन एक दिन डिलीवरी करने वाले लड़के की गलती के कारण उनका लंच बॉक्स किसी और से बदल गया और इस अदलाबदली ने न केवल उनके स्वाद को, बल्कि उनकी किस्मत को भी एक ऐसी घरेलू महिला के साथ जोड़ दिया, जिसने बगल वाली आंटी से मिली टिप्स और उसमें बहुत सारा प्यार का तड़का लगाकर बस कुछ ही दिनों से अपने पति के लिए स्वादिष्ट खाना बनाने की शुरुआत की थी.
उस फिल्म ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी जब मैं और बाकी दूसरे बच्चे स्कूल में लंच बॉक्स लेकर जाया करते थे और हमें पता भी नहीं होता था कि उसमें कौन सा खजाना छिपा है. लंच का समय उस खजाने का राज फाश होने का समय होता था. कभी–कभी उस बॉक्स को खोलते ही हमारी बाछें खिल जाती थीं, जबकि कई बार हमें मायूसी हाथ लगती थी. लेकिन सब दोस्तों के साथ मिलकर उस बॉक्स को खोलने की मस्ती किसी रोमांच से कम नहीं होती थी.
जैसे–जैसे हम बड़े हुए और आपाधापी हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनती गई, वह बेचारा लंच बॉक्स हमारी जिंदगियों से गायब हो गया. इसलिए जब मैं भारत आया, तो सैमसंग में मुझे अपने कई सहकर्मियों को अपना लंच बॉक्स लेकर आते देख बहुत अचरज हुआ. वे सब लंच के समय कैफेटेरिया में उसे अपने साथ लाते हैं, स्मार्ट अवन में उसे गर्म करते हैं और फिर प्लेट में उसे परोस कर खाते हैं. मुझे अक्सर घर का अपना खाना याद आता है, जो मेरी मां बनाती थी और जिसमें उन तमाम गुप्त तरीकों का इस्तेमाल होता था, जो दरअसल घर में बने खाने को इतना लजीज बना देते हैं.
कोरिया के मेरे ज्यादातर सहकर्मियों की तरह मुझे भी उन सैकड़ों रंग–बिरंगे, अलग–अलग आकार–प्रकार के लंच बॉक्स अचम्भित करते हैं, जो ऑफिस बिल्डिंग की दीवारों से सटाकर एक कतार में रखे होते हैं, खास तौर पर जाड़ों में जब उनके मालिक लंच के बाद थोड़ी देर टहलने के लिए बाहर जाते हैं. हमारे अंदर एक ओर तो कुतूहल पैदा होता है और दूसरी ओर हम भारतीय परिवारों के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार को देख कर भावुक भी हो जाते हैं.
इसलिए जब फिल्म लंच बॉक्स रिलीज हुई और किसी ने हमें उसके बारे में बताया, तो हमारे कोरियाई सहकर्मियों ने उसे देखने का फैसला किया. कुछ ने इसे सिनेमा हॉल में जा कर देखा और कुछ ने घर पर ही, जबकि कुछ ने दोस्तों के समूहों द्वारा विशेष तौर पर आयोजित शो में इसे देखा. मैंने अब तक जितनी भी फिल्में देखी हैं, उनमें यह सबसे अद्भुत थी और बॉलीवुड की तो निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी. कुछ महीनों के बाद जब मेरी पत्नी दिल्ली आई, तो मैंने उसे और अपने कई दोस्तों को भी इससे रूबरू कराया.
जैसे जिंदगी के सबसे बड़े रहस्य हमेशा थियेटर में खुलते हैं, वैसे ही मेरी इस पहली भारतीय मूवी लंच बॉक्स ने मुझे दिखाया कि भारत में घरों पर लंच बॉक्स कैसे तैयार होते हैं और कैसे वे डब्बावालों को सौंपे जाते हैं, कैसे लोकल ट्रेनों का सफर करते हुए दूर–दराज के ऑफिस में टेबल के पीछे बैठे प्रियजनों तक इतनी सुगमता से पहुंच जाते हैं. उन लंच बॉक्सेज और उनसे जुड़े लोगों की यात्रा ने मुझे सिखाया कि यहां जिंदगी कैसे मेट्रो शहरों की खूबसूरत (Surat) अराजकता के बावजूद कुशलता से चलती रहती है.
दक्षिण कोरिया और भारत में पारिवारिक मूल्य लगभग एक से हैं. शायद यही कारण है कि हम बॉलीवुड फिल्में देखना पसंद करते हैं और यहां कोरियाई सिनेमा, कोरियाई टीवी धारावाहिक और कोरियाई पॉप दिनोंदिन लोकप्रिय हो रहे हैं.
यह फिल्म देखते वक्त हमें लगातार घर पर हमारा इंतजार करते और हमें याद करते हमारे प्रियजन और हमारे माता–पिता याद आते हैं. हम इस लोकाचार को समझ सकते हैं और उस पारिवारिक बंधन को महसूस कर सकते हैं जो भारतीय परिवारों में मौजूद है. इसके अलावा इस फिल्म ने हमें कई मजेदार भारतीय व्यंजनों और मसालों इत्यादि के बारे में भी बताया.
इस फिल्म के किरदार बिलकुल वास्तविक थे और अभिनेताओं ने अपनी भूमिका बहुत अच्छी तरह से निभाई. मुझे याद है कि इरफान जी द्वारा निभाया गया किरदार किस तरह लंच बॉक्स का इंतजार करता है और बाद में किस तरह वह बॉक्स को धोता है. उन्होंने बहुत ही स्वाभाविक अभिनय किया था.
इसलिए जब मैंने इरफान जी की मृत्यु का समाचार सुना, तो मुझे बहुत दुख हुआ. मैंने उन्हें स्लमडॉग मिलियनेयर और लाइफ ऑफ पाई जैसी हॉलीवुड फिल्मों में भी देखा है. वह सिर्फ एक महान अभिनेता ही नहीं थे, बल्कि जीनियस इंडियन और ग्लोबल इंडियन के भी महान उदाहरण थे.
उनकी वह फिल्म मेरी स्मृति में हमेशा जिंदा रहेगी. उस कहानी ने मुझे सिखाया कि लंच बॉक्स में अपनापन और अपेक्षाओं की जो सामग्री होती है, वह एक ही होती है, चाहे लंच भारत में तैयार हो या फिर कोरिया में. केवल एक अंतर है कि यहां आपका लंच बॉक्स स्वयं आपको ढूंढ लेता है.
(इस लेख के लेखक जुन्हो जे जियोंग सैमसंग इंडिया में पिछले पांच वर्ष से कार्यरत हैं. उन्हें भारत के अलग–अलग जायकों, यहां की जिंदगी और यहां के लोगों के बारे में जानकारी के लिए दिल्ली की गलियों में भटकना पसंद है. हालांकि वे अब भी हिंदी या कोई दूसरी स्थानीय भाषा नहीं बोल पाते, लेकिन वह इतना जरूर बोल देते हैं कि ‘ठीक है’.)
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